जन्म | सन 1888, कार्तिक बदी 11 |
जन्म स्थान | छाणी, जिला उदयपुर |
जन्म नाम | श्री केवलदास जैन |
गृहत्याग | जनवरी 1919 (वि. स. 1976 ) |
व्रत ग्रहण | श्री पार्श्वनाथ भगवान के समक्ष स्वर्णभद्र कूट श्री सम्मेदशिखर जी पर्वत |
क्षुल्लक दीक्षा | भगवान आदिनाथ के समक्ष सन 1922 (वि. स. 1979 ), गढ़ी, जिला – बांसवाड़ा (राज ) |
मुनि दीक्षा | 24 सितंबर 1923 (भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी वि. स. 1980 ) |
स्थान | सागवाड़ा जिला डूंगरपुर (राजस्थान ) |
आचार्य पद | सन 1926 (वि स 1985) |
स्थान | गिरिडीह झारखण्ड |
समाधीमरण | 17 मई 1944 (ज्येष्ठ बदी 10 वि. स. 2001 ) |
स्थान | सागवाड़ा (राजस्थान) |
बीसवीं सदी में दिगंबर जैन मुनि परंपरा सम्पूर्ण भारत में कुछ अवरुद्ध सी हो गयी थी। दिगंबर साधना का संदर्शन मात्र मूर्तियों में होता था, या फिर शास्त्रों की गाथाओं में। इस असंभव को तीन महान दिगंबर आचार्यों ने संभव बनाया; पश्चिम भारत में आचार्य श्री 108 आदिसागर जी अंकलीकर ने, दक्षिण भारत में आचार्य श्री 108 शांतिसागर (चारित्र चक्रवर्ती) जी ने और उत्तर भारत में आचार्य श्री 108 शांतिसागर जी छाणी ने। यह भी अत्यंत शुभमय और प्रेरक प्रसंग है कि आचार्य श्री 108 शांतिसागर (चारित्र चक्रवर्ती) और आचार्य श्री 108 शांतिसागर छाणी के साधना-आदित्य का उदय समकालिक है।
प्रशममूर्ति, वात्सल्य वारिधि, बाल ब्रह्मचारी, तपोनिधि संत, उत्तर भारत के प्रथम दिगंबर आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी की जीवनगाथा, आस्था, निष्ठा, साहस और दृढ़ संकल्पों की जीवंत गाथा है। वे इस शताब्दी के ऐसे महान ऋषि थे, जिन्होंने सम्पूर्ण उत्तर भारत को दिगंबर साधना के महत्व से परिचित कराया तथा अपना सम्पूर्ण त्यागमय जीवन स्वात्मबोध के साथ-साथ जन चेतना के परिष्कार को किया समर्पित भी। पूज्यपाद छाणी महाराज ने रत्नत्रयी साधना पथ पर अपने पगचिन्ह उत्कीर्ण किए- पहली बार उत्तर भारत की धरती पर और दिगंबर संत परंपरा को पुनर्जीवित करने के साथ-साथ जन-जन को सम्यक्त्व के दर्शन से परिचित भी कराया।
स्वर्णभद्र कट (भगवान पार्श्वनाथ टोंक) आचार्य श्री शांतिसागर जी छाणी (उत्तर) का जन्म कार्तिक वदी एकादशी विक्रम संवत 1945 (31 अक्टूबर, 1888 ) को ग्राम छाणी, तहसील खेरबाड़ा, जिला उदयपुर (राजस्थान) में हुआ था। छाणी गाँव के दशा हूमड़ समाज के अत्यंत धर्म परायण श्रावक श्री भागचंद जी एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती माणिकबाई के परिवार में बालक केवलदास का उदय हुआ। बालक केवलदास कुशाग्र बुद्धि के थे और सामान्य बालकों से बिल्कुल अलग-कुछ दार्शनिक सा स्वभाव था उनका। बड़े भाई खेमजी और दोनों बहनें फूलबाई एवं रतनबाई तथा बीकानेर निवासी उनके बहनोई गुलाबचन्द साहब जब नेमि पुराण के वैराग्य प्रसंगों की चर्चा करते थे, तब बालक से किशोर हो चुके केवलदास के मानस में स्वतः वैराग्य की तरंगें उनके अन्तर्मन को झंकृत करती रहती थीं। त्यागमय जीवन उनका अभीष्ट था; एक समय शुद्ध आहार, वस्तुओं का सीमाकरण उनके आत्म-बल को क्रमशः वर्धित कर रहे थे। संयोगवश एक रात स्वप्न में उन्हें आभास हुआ अपने असीम आत्म-बल और अपरिमित पुरुषार्थ का और इससे संबलित एवं संप्रेरित हो उन्होंने प्रस्थान किया शाश्वत तीर्थराज सम्मेद शिखर के दर्शनों के लिए-सारी प्रतिकूलताओं के बावजूद। पर्वतराज की पाँच वंदनाएं करने के उपरांत सुवर्णभद्र कूट पर, प्रभु पार्श्व के चरणों में बैठ कर हो गए वे ध्यानस्थ - अपने हाथों से कर लिया अपने केशों का लुंचन भी; पूर्ण निर्ममत्व भाव से और संकल्प लिया - प्रभु चरणों को साक्षी मान कर, पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ सप्तम प्रतिमा व्रत के अंगीकरण का।
ब्रह्मचारी केवलदास राजस्थान की शौर्य और आध्यात्म की मंगल धरती राजस्थान पहुंचे शिखर सम्मेद की वंदना कर। बांसवाड़ा के निकट अवस्थित गढ़ी गाँव में ढाई द्वीप विधान के आयोजन के समय, भगवान आदिनाथ की प्रतिमा के सम्मुख, आपके चित्त में आध्यात्मिक प्रस्थान के मंगल भाव स्फुरित हुए और सम्पूर्ण समाज के समक्ष आपने क्षुल्लक दीक्षा के अंगीकरण हेतु अपने मंगल भाव अभिव्यक्त किए। समाज की स्वीकृति के उपरांत, विशाल जन मेदिनी की अनुमोदना ग्रहण करते हुए ब्रह्मचारी केवलदास का ऊध्वगामी रूपान्तरण हो गया; क्षुल्लक 105 शांतिसागर के रूप में। चूँकि कोई दिगंबर साधू उपलब्ध ही नहीं थे, अतः भगवान आदिनाथ की प्रतिमा को साक्षी मान, सम्पूर्ण दिगंबर जैन समाज के मध्य आपने किया स्वयं को दीक्षित; विक्रम संवत् 1979; तदनुसार वर्ष 1922 में। बागड़ क्षेत्र के गाँवों में आपका विहार सम्पन्न हुआ और अहिंसा का जयघोष आपकी वाणी से मुखरित होने लगा। आपके प्रबोधनों का इतना व्यापक असर हुआ कि ग्रामवासी स्वेच्छया मांसाहार और मदिरा का त्याग करने लगे। उनके व्यसनमय जीवन में अद्भुत सकारात्मक रूपान्तरण दृष्टिगत होने लगा। परतापुर की पवित्र धरती पर क्षुल्लक श्री का प्रथम चातुर्मास, विक्रम संवत 1980 (वर्ष 1923 ) में सम्पन्न हो रहा था।
दशलक्षण पर्व के पवित्र क्षणों में भक्तिमय अवस्था आपके अन्तर्मन को झंकृत कर रही थी और वैराग्य वारिधि की उत्तल तरंगें आपके चित्त का सम्यक्त्वशील प्रक्षालन कर रही थीं। इसी वर्ष अनंत चतुर्दशी के पवित्र क्षणों में वि. स. 1980 तदनुसार 23 सितंबर, 1923 को क्षुल्लक श्री ने समस्त जैन समाज के बीच, प्रभु आदिनाथ के समक्ष, दिगंबर मुनि के स्वरूप का अंगीकरण किया और उदय हुआ उत्तर भारत के प्रथम दिगंबर जैन मुनि 108 शांतिसागर जी महाराज का, जिन्हें काल ने छाणी महाराज के रूप में भी पूजित किया।
मुनि रूप में 108 शांतिसागर जी महाराज ने दिगंबर मुनि की चर्या, उसके मूल गुणों की साधना और तपश्चर्या के विविध आयामों से जैन समाज को परिचित कराना प्रारंभ किया। जन-जन अभिभूत हो रहा था, महावीर के लघुनन्दन के दर्शन कर। काल के दुष्प्रभाव से विलुप्त हो गई दिगंबर मुनि परंपरा फिर से जीवंत हो गई; विशेष रूप से उत्तर भारत में। मुनिराज आत्मकल्याण की साधना में तो प्रवृत्त थे ही; वे समाज सुधार के प्रति भी पूर्ण चैतन्य थे। विवाह में हो रहे कन्या विक्रय से उनका संवेदी मन आहत था। उन्होंने मेवाड़ अंचल के बागड़ क्षेत्र में धड़ल्ले से चल रही इस प्रथा को बंद कराने में सफलता प्राप्त की। पूज्यवर मालवा की हृदयस्थली इंदौर पधारे एवं वहीं पर उनका मंगल वर्षायोग सम्पन्न हुआ। इंदौर में ही पूज्यवर ने ऐलक के रूप में सूर्यसागर जी को दीक्षित किया। इंदौर से विहार कर आप हाट पीपल्या पधारे और ऐलक सूर्यसागर जी को मुनि रूप में दीक्षित किया। विहार के उपरांत गुरुवर अपने शिष्य के साथ ललितपुर पधारे और अपना मंगल वर्षायोग सम्पन्न किया। गुरुदेव के मंगल प्रबोधनों ने अद्भुत धर्म प्रभावना की और जन चेतना का हुआ अद्भुत परिष्कार भी। गुरुदेव विहार करते हुए लखनऊ और गोरखपुर पहुंचे एवं अपने उपदेशों से उन्होने नई चेतना विस्तीर्ण की।
मुनिश्री अपने धर्म-संघ के साथ अनवरत विहार करते रहे; उत्तर और पूर्वी भारत की धरा पर विहार करते-करते शिखर सम्मेद की वंदना करने के अनन्तरं, वे जा पहुँचे गिरिडीह। शाश्वत तीर्थराज सम्मेद शिखर के समीप अवस्थित इस शहर की धर्मानुरागी समाज ने पूज्यवर की सन्निधि में धर्म-साधना तो की ही; उन्हें सर्वानुमोदना के साथ विक्रम संवत 1983 (वर्ष 1926) में, आचार्य पद पर प्रतिष्ठित भी कराया। आपकी सरलता और साधना के प्रभाव से स्थानीय ब्रह्मचारी सुवालाल जी भी आपसे प्रभावित हो मुनिरूप में दीक्षित हुए। आचार्यश्री का संघ विहार करते हुए चम्पापुरी, मंदारगिर, गुणावा, राजगृह, कुंडलपुर, पावापुरी, पालगंज होते हुए तीर्थराज सम्मेदिशखर जी पहुंचा और यहीं पर मुनि वीरसागर जी ने आपके शिष्यत्व को स्वीकारा और संघस्थ हो गए। पूज्य आचार्यश्री का ससंघ विहार गया, रफीगंज, काशी, मीरजापुर, इलाहाबाद, बाराबंकी, बांदा, मऊरानीपुर, बरुआसागर, झांसी, सीपरी, बजरंगगढ़, व्यावर, गुना, रुठवाई, सारंगपुर, उज्जैन, बड़नगर, रतलाम, खान्दु, सागवाड़ा आदि स्थानों पर हुआ और विहार करते हुए मुनि संघ बागड़ अंचल के परतापुर पहुंचा। जिन-जिन स्थानों पर आपके पवित्र चरण पड़े, वहाँ के सभी निवासियों के चिंतन, मनन और जीने के तरीकों में अभूतपूर्व परिवर्तन आया। जैनेतर बंधु भी आपकी तपस्या और प्रबोधनों से मुग्ध हो रहे थे। मांस-मदिरा, रात्रि भोजन, सप्त-व्यसनों के त्याग का आपका आह्वान बहुत तत्परता के साथ स्वीकार्य हो रहा था। सामाजिक कुरीतियों की विदाई हो रही थी और नव-चैतन्य स्फूर्त हो रहा था।
परतापुर में आचार्यश्री का चातुर्मास आयोजित हुआ और यहीं पर आपने साहित्य साधना भी की। आपने शांतिविलास नामक पद्यात्मक पुस्तक का सृजन किया, जिसमें एक हजार आध्यात्मिक दोहे और सवैये अंकित किए गए थे। इसके अतिरिक्त आपने मूलाराधना, आगम दर्पण, शांति शतक, शांति सुधा सागर आदि ग्रंथो का संपादन भी किया, जिससे आज हमारी श्रुत परंपरा सुरक्षित ही नहीं वृद्धिंगत भी हुई है। आपकी मंगल प्रेरणा से धार्मिक पाठशालाएं स्थापित की गईं, जिनमें सभी आयु वर्गों के लोगों के लिए रात्रिकालीन कक्षाएं आयोजित की जाती थीं। परतापुर (जिला बांसवाड़ा) में चातुर्मास सम्पन्न कर आप गढ़ी, सागवाड़ा, डलूका, आजणा, अर्थोना, गलियाकोट, चीतरी, कौवा, पीठ, बाकरोल, बामनवाडस, बाकानेर, भीलोड़ा, चिंतामणि पार्श्वनाथ, मुरेठी, गोरेल आदि स्थानों पर धर्मोपदेश देते हुए ईडर पधारे।आपकी प्रेरणा का ही सुफल था कि ईडर में जैन बोर्डिंग, श्राविकाश्रम, ग्रंथमाला,और सरस्वती भवन आदि स्थापित किए गए। गुरुदेव का पद विहार निरंतर चलता रहा। आपकी दिव्य दृष्टि सामाजिक कुरीतियों को दूर करने की तरफ भी लगी थी। आपने प्रेरणा दी कि मृत्यु के समय छाती पीट-पीट कर रोने की प्रथा अमंगलकारी है और पूज्य तपोनिधि गुरुदेव अशुभोदय की निमित्त बनती है। आपकी प्रेरणा से यह प्रथा तेजी से बंद होने लगी। आपने तारंगा जी से विहार कर सुदासना, नवावास, डांटा, छापालपुर, डकरेल, बढाली, अमोनरा, श्री कड़ियादारा, चोटासण, चीरीवाड़, टाँकाटुंका, भीलोडा, भूलेटी, कुकड़िए, जादर, भद्रसेन, चित्तोड़ा, सावड़ी, कोटोडा, जाम्बूड़ी, नवा, फतहपुर, सोनासन, ओरणा, लकरोड़ा, सितवाडे, दस्सरा, पीलपुर, कलोल, अलूया, बलासण, भालक, जत्रल, नागफणी पार्श्वनाथ आदि स्थानों पर धर्मोपदेश दिये। जिस स्थान पर भी आपके पग पड़े, वहाँ के चिंतन और चेतना आपके प्रबोधनों से प्रभावित हुए। चाहे पशुओं की बलि प्रथा हो, मृत्यु के बाद महिलाओं का रुदन, क्रंदन, काले वस्त्रों का उपयोग, मांस-मदिरा का सेवन हो; आपके प्रभाव से इन सभी पर तेजी से रोक लगने लगी। सम्पूर्ण भारत में परिभ्रमण कर भव्य जीवों को उपदेश देते हुए सम्पूर्ण उत्तर भारत में जन-चेतना का आपने अहर्निश परिष्कार किया - सतत पद विहार कर और वीतरागी साधना की परिशुद्धता के उदाहरण बन।
राजस्थान के ब्यावर शहर में इस युग के दो महान आचार्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी (दक्षिण) एवं प्रशम मूर्ति आचार्यश्री शांतिसागर जी (छाणी) के वर्षायोग एक साथ सम्पन्न हुए। दोनों दिगंबर आचार्यों ने समत्व की अभूतपूर्व साधना की, समता और समन्वय का जन-जन को पाठ पढ़ाया एवं जन-जन को संस्कारित किया- बिना किसी पंथ भेद के, बिना किसी विभाव के; जो था, वह था, सिर्फ और सिर्फ सद्भाव। इस युग के इन दो महान संतों का तारंगा जी में भी मिलन हुआ था और दोनों ने सम्मिलित रूप से साधना की तथा किया जन चेतना का परिष्कार भी। परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने भी अपने प्रवचन में दोनों आचार्यों के मंगल मिलन, वात्सल्यमय चिंतन और प्रबोधनों की चर्चा बड़ी मुखरता के साथ की है।
पूज्यपाद आचार्यश्री देह में रह कर विदेह की साधना की कला के मर्मज्ञ थे।शरीर से पूरी तरह से निस्पृह , आत्मा के समीप रहने की 'उपवास' कला के अप्रतिम साधक। अपने साधना काल में आपने सोलहकारण व्रतों के 32 उपवासों की एक लंबी श्रृंखला कई बार पूर्ण की और सम्पूर्ण साधना काल में सहस्राधिक उपवास किए। वे उपसर्ग विजेता भी थे; किसी भी प्रतिकूलता का अपनी सम्यक्त्व शैली से उत्तर देते थे। चाहे बड़वानी में उनपर मोटर चढ़ाने के कुत्सित प्रयत्न हों या उनको जहरीले सर्पो से डसवाने की कोशिश हो- आपने समता भाव से इन सारी घटनाओं को झेला; बिना आक्रोशित हुए। अपने ऊपर उपसर्ग करने वालों को हमेशा आपने क्षमा ही किया। ब्यावर से विहार कर आचार्यश्री पुन: मेवाड़ क्षेत्र में पहुँचे और ऋषभदेव (केशरिया जी ) में आपके दो चातुर्मास सम्पन्न हुए। पूज्यवर विहार करते हुए सागवाड़ा पधारे। वहीं उन्हें ज्वर का प्रकोप हुआ और वह धीरे-धीरे बिगड़ता गया। सामान्य सा ज्वर निमोनिया में बदल गया और दिन-प्रतिदिन आपका स्वास्थ्य क्षीण होता गया। पूज्यवर के चेहरे पर असीम शांति व्याप्त रहती थी। कहीं भी पीड़ा या अवसाद नहीं था; न ही थी कोई आकुलता भी। समाधि के दो दिन पहले से ही आपने समस्त प्रकार के आहार आदि का त्याग कर दिया था। संघस्थ मुनि नमिसागर जी आदि एवं सभी साधुगण बड़ी तन्मयता और तत्परता के साथ दश भक्ति पाठ, आचार्यवर के सम्मुख सम्पन्न किया करते थे। विक्रम संवत 2001 की ज्येष्ठ बदी दशमी, तदनुसार 17 मई 1944 को पूज्यवर ने सल्लेखना ग्रहण करते हुए, समाधि पूर्वक अपने पार्थिव शरीर का परित्याग किया-अपने समस्त संघस्थ साधुओं, ब्रह्मचारियों और त्यागियों तथा समस्त समाज के मध्य-अपूर्व शांति के संग।
संपूज्य चरण आचार्यश्री शांतिसागर जी छाणी महाराज की परंपरा प्रशस्त है। द्वितीय पट्टाचार्य सूर्यसागर जी बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होंने लगभग पैंतीस ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनके उपरांत आचार्यश्री विजयसागर जी, आचार्य श्री विमलसागर जी (भिण्ड ) एवं आचार्य श्री सुमतिसागर जी आविर्भूत हुए, जिन्होंने उनकी परंपरा को विस्तार दिया। आचार्यश्री सुमतिसागर जी के शिष्य आचार्यश्री विद्याभूषण सन्मतिसागर जी हुए, जिन्होंने बड़ागांव में त्रिलोकतीर्थ की अनुपम रचना के निर्माण को अपना आशीर्वाद दिया। छाणी महाराज की परंपरा के वर्तमान षष्ठ पट्टाचार्य पूज्यपाद श्री ज्ञानसागर महाराज हैं, जिनके पावन आशीर्वाद और प्रेरणा से आचार्य प्रवर की समाधि का हीरक महोत्सव पूरे देश में आयोजित किया जा रहा है। पूज्य गुरुदेव की समाधि के हीरक महोत्सव के प्रसंग पर उनकी अहर्निश वंदना है, नमोस्तु है। वर्ष भर चलने वाले आयोजनों का संबोध है; उनकी प्रकीर्तित प्रज्ञा-पारमिता के प्रकर्ष का अभिवंदन, प्रज्ञा और प्रतिभा के धनी पूज्य आचार्य श्री के ज्ञान चारित्र्यमय पुरुषार्थ का अभिनंदन, जिससे जन-जन के मानस में नमन का ऐसा उत्कृष्ट भाव सृजित हो, जो अहं को गला कर, अर्हम् पद के राजमार्ग पर कर सके प्रवृत्त-सभी को। ऐसी महान चारित्रात्मा के पाद-पद्मों की वंदना है; त्रिबार नमोस्तु है।
क्रमांक | विक्रम संवत | ईस्वी सन | स्थान |
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 |
1979 1980 1981 1982 1983 1984 1985 1986 1987 1988 1989 1990 191 1992 1993 1994 1995 1996 1997 1998 1999 2000 |
1922 1923 1924 1925 1926 1927 1928 1929 1930 1931 1932 1933 1934 1935 1936 1937 1938 1939 1940 1941 1942 1943 |
(क्षुल्लक अवस्था)परतापुर सागवाड़ा (मुनि एंव आचार्य अवस्था) इंदौर ललितपुर गिरीडीह परतापुर (बांसवाड़ा) 1928 ऋषभदेव सागवाड़ा इंदौर ईडर नसीराबाद ब्यावर सागवाड़ा उदयपुर ईडर मलियाकोट पारसोला भींडर तालोद ऋषभदेव ऋषभदेव सलुम्बर |